जैविक खेती में पोषक तत्वों को उपलब्ध कराने तथा मिट्टी को भुरभुरी बनाकर, हवा का संवहन बढ़ाने में केंचुआ का महत्वपूर्ण योगदान होता है| मुख्यतः केंचुओं को दो वर्गों में बाँटा जा सकता है जैविक कचरा खाने वाले तथा मिट्टी खानेवाले| वर्मीकम्पोस्ट बनाने हेतु जैविक कचरा खाने वाले केंचुआ का प्रयोग किया जाता है| जैसे कि एसीना फेटिडा ये लाल रंग के तथा आकार में छोटे होते हैं| जबकि मिट्टी खाने वाले केंचुए साधारणतः: आकार में बड़े होता हैं, इनकी कई प्रजातियाँ हैं जो कि मिट्टी खाने वाले केंचुए साधारणतः आकार में बड़े होते हैं, इनकी कई प्रजातियाँ हैं जो कि मिट्टी के सतह से लेकर 15 फुट गहराई तक निवास करती है|
मिट्टी में उचित आर्द्रता होने तथा सतह पर गाय या नया जानवरों के गोबर व गौमूत्र से निर्मित घोल (जीवामृत) के प्रयोग करने से इन मिट्टी खाने वाले केंचुओं की क्रियाशीलता बढ़ जाती है| अच्छी परिस्थितियों में प्रति वर्गफुट 4 केंचुए होते हैं इस प्रकार से एक एकड़ क्षेत्र में 400,00 100,000 तक केंचुए हो सकते हैं|
केंचुए मिट्टी की विभिन्न सतहों से मिट्टी खाकर पचाकर, उसे मल(वर्मीकास्ट) के रूप में खेत के सतह पर छोड़ते रहते है| यदि 10 प्रतिशत केंचुए भी सक्रिय हैं तो एक घंटें में 30 किलोग्राम तक वर्मीकास्ट (केंचुए का मल) खेत की ऊपरी सतह पर जमा होता है\ वर्मीकास्ट) में सभी तत्व (फास्फेट, पोटाश व अन्य सूक्ष्म तत्व) घुलनशील अवस्था में होते हैं जिसे पौधा तुरंत ग्रहण कर सकता है| इस प्रकार से केंचुओं द्वारा मिट्टी की सतह से 15 फुट नीचे तक के पोषक तत्व खेत की ऊपरी सतह पर उपलब्ध हो जाते हैं| जब ये केंचुए मरते हैं तो इनके विघटन से भी सभी प्रकार के पोषक तत्व मिट्टी में मिल जाते हैं| साथ ही साथ केंचुओं की गतिविधियों से मिट्टी भी भुरभुरी होती है, जिससे इसकी जल धारण क्षमता में वृद्धि होती है तथा हवा का संचार बढ़ जाता है ये सभी परिस्थितयाँ सूक्ष्म जीवों के प्रजनन एवं विकास के लिए आर्दश होती हैं|
इस प्रकार से जैविक खेती में केंचुए, सूक्ष्म जीवाणुओं तथा जैविक पदार्थों के समन्वयित प्रक्रिया के फलस्वरूप पर्याप्त मात्रा में फास्फेट की आपूर्ति होती है|
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